एक्टर, मॉडल, बिजनेस गर्ल है निशा, यूट्यूबर पर हजारों फॉलोवर्स
बच्चों को काबिल बनाना हर एक माता-पिता का सपना होता है, लेकिन कुछ अपनी परिस्थितियों के अनुसार उनकी परवरिश करते हैं, तो कुछ उनकी ख्वाहिश को पूरा करने किसी भी हद से गुजर जाते हैं। दिन-रात मेहनत कर वे उसके सपनों को बुनते हैं और तब उन्हें बहुत खुशी मिलती है, जब उनकी पहचान बच्चों के नाम से होती है। ऐसा ही कुछ हुआ ग्वालियर की ऊषा शर्मा और नरेश शर्मा के साथ। बेटी को डांस और एक्टिंग का शौक था, लेकिन डांस सिखाने के लिए पैसे नहीं थे। तब उन्होंने कपड़े सिले। पापा ने कपड़े की दुकान में 3 हजार महीने की नौकरी की, लेकिन बेटी के सपने नहीं टूटने दिए। आज वही बेटी निशा अच्छे लेवल की डांस एकेडमी चला रही है, जिसमें कोरोना काल के पहले तक छह बैच में 100 बच्चे आते थे। फिल्म सिंगुलर्टी, सीरियल जोधा अकबर, गुमराह में एक्टिंग कर चुकी है। बिजनेस गर्ल के रूप में भी पहचान बनाई है। उनका सिटी सेंटर में खुद का फ्रूट कैफे बार है। यूट्यूब पर 50 से अधिक क्लासिकल डांस अपलोड कर चुकी हैं। निशा के एक-एक गाने पर 45 लाख से अधिक व्यूज मिलते हैं।
कॉम्पीटिशन के लिए मैं खुद बनाती थी ड्रेस
मां ऊषा ने बताया कि निशा ढाई साल की उम्र से टीवी के सामने डांस करती थी। एक बार मैंने उसकी पिटाई की, तब हसबैंड ने मुझे बहुत डांट लगाई। तब से मैंने सोच लिया कि बेटी जो करेगी वो मैं कराऊंगी। तब मैं उसे डांस क्लास में एडमिशन दिलाने गई, लेकिन वह फीस मैं देने की स्थिति में नहीं थी। तब मैं बाजार से सीडी लाती और बेटी टीवी पर उसे देख डांस सीखती। वह कॉम्पीटिशन में भाग लेने जाती, तो उसकी ड्रेस मैं खुद बनाती। कई-कई किमी पैदल चलकर हम प्रतियोगिता में हिस्सा लेने जाते थे।
साड़ी की दुकान से मिलते थे तीन हजार रुपए
पिता नरेश ने बताया कि उस समय मुझे साड़ी की दुकान से तीन हजार रुपए मिलते थे, जो कमरे का किराया और तीन बच्चों की परवरिश में खर्च हो जाते थे। उस समय पत्नी ऊषा से सिलाई शुरू की। वह घर-घर जाकर कपड़े सिलने के लिए लाती। उससे बेटी के कॉम्पीटिशन का खर्च निकल पाता। लेकिन आज सारे दुख खत्म हो गए। मैं आज नौकरी अपने शौक से कर जरूर रहा हूं, बाकी सारा खर्च मेरी बेटी अपनी डांस क्लास और कैफे से उठा रही है। आज बेटी के नाम से पूरा शहर हमें जानता है।
रोड किनारे गुजारे थे तीन दिन
ऊषा ने बताया कि डीआइडी सीजन-2 में बेटी को भाग दिलाने दिल्ली लेकर गई। वहां इतने पैसे भी नहीं थे कि मैं किसी धर्मशाला में रुक सकूं। तब हम रोड किनारे रुके और बिस्किट-नमकीन खाकर तीन दिन और रात गुजारे। लास्ट दिन एक रिश्तेदार का पता चला, तब उनके यहां रुके। आज वह दिन याद आते हैं।
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